अब इस ब्लॉग का संचालन बंद कर दिया गया है. आप लोगो का प्यार मिला. उम्मीद है की इस नए पते पर भी आप पढने के लिए आते रहेंगे ........
जंग कलम की.......
देख,सुन,पढ़,लिख और फिर तैयार हो जाओ ज़ंग कलम की लड़ने को, बोल इन्कलाब ..........
शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011
शनिवार, 27 मार्च 2010
योग्यता
विवेक मिश्र
अपनी जिन्दगी का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा,
तुमने योग्यता अर्जित करने में लगा दिया,
इस दौरान तुममे कई कुंठाओ ने घर किया ,
जिसे तुम समझ न सके
अब तुन्हारी योग्यता दो पन्नों में फनफनाने लगी,
कुछ और लोग
जो अब तुम्हारे योग्यता के दो पन्नो पर सवाल पूंछेगे
ये सवाल पूछने वाले जिन्दगी के उस पड़ाव पर हैं
जन्हा इन्हें अपनी योग्यता के आधार पर
यह सवाल पूछना है की तुम्हारी योग्यता क्या है ?
प्रश्नों का दौर चलता है
तुम अपनी योग्यता साबित करते जाते हो
और अंत में एक व्यक्ती तुमसे कहता है
एक अंतिम प्रश्न पूंछू ?
आप पूरे आत्मविश्वास से लबरेज़ हो प्रश्न पूछने की अनुमती दे देते है
वह आपसे पूछता है
तुम्हारी जाति क्या है ?
और फिर भीषण सन्नाटा जो तुम्हारे मन से उपज कर
एक बंद कमरे में फ़ैल जाता है
तुम उस बंद कमरे से बाहर चुपचाप उठ कर चले आते हो
और अंत में आपके मन में एक सवाल खड़ा होता है
जो अंतविहीन बहस की तरह हो जाता है
आखिर योग्य कौन ?
अपनी जिन्दगी का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा,
तुमने योग्यता अर्जित करने में लगा दिया,
इस दौरान तुममे कई कुंठाओ ने घर किया ,
जिसे तुम समझ न सके
अब तुन्हारी योग्यता दो पन्नों में फनफनाने लगी,
कुछ और लोग
जो अब तुम्हारे योग्यता के दो पन्नो पर सवाल पूंछेगे
ये सवाल पूछने वाले जिन्दगी के उस पड़ाव पर हैं
जन्हा इन्हें अपनी योग्यता के आधार पर
यह सवाल पूछना है की तुम्हारी योग्यता क्या है ?
प्रश्नों का दौर चलता है
तुम अपनी योग्यता साबित करते जाते हो
और अंत में एक व्यक्ती तुमसे कहता है
एक अंतिम प्रश्न पूंछू ?
आप पूरे आत्मविश्वास से लबरेज़ हो प्रश्न पूछने की अनुमती दे देते है
वह आपसे पूछता है
तुम्हारी जाति क्या है ?
और फिर भीषण सन्नाटा जो तुम्हारे मन से उपज कर
एक बंद कमरे में फ़ैल जाता है
तुम उस बंद कमरे से बाहर चुपचाप उठ कर चले आते हो
और अंत में आपके मन में एक सवाल खड़ा होता है
जो अंतविहीन बहस की तरह हो जाता है
आखिर योग्य कौन ?
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
अभिव्यक्ति पर पड़ी हथकड़ी .........
(बाए इनसेट में सीमा आज़ाद )
1948 में u n o ने मानवाधिकारों की सार्वभोमिक घोषणा की थी -
"जिसके अंतर्गत हर व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है । बिना केसी बाधा के विचार निर्मित करना और उसे व्यक्त करना इस अधिकार में सम्मिलित है देश की सीमाओं की चिंता किये बगैर किसी भी माध्यम से सूचनाये एवं विचार व्यक्त करने प्राप्त करने और उन्हें लोगो तक पहुचाने का अधिकार भी इसमें शामिल है "
भारतीय सविधान के दृष्टिकोण से १९ अ में सूचना देने और प्राप्त करने का अधिकार है , और इन बातो के लिखने का यंहा यह मतलब है क्योंकि लगातार उत्तर प्रदेश में मायावती के फासिस्ट राज ने लोकतंत्र और अभिव्यक्ति का गला घोटा है जिससे अभिव्यक्ति पर एक बड़े प्रहार के रूप में देखा जाना चाहिए यदि हम सभी पत्रकार या समाज में एक सामजिक प्राणी की हैसियत रखने वाले इसे नज़र अंदाज करते है या चुप रहते है तो तय है संविधान का गला घोटने में हम भी मायावती सरीखे एक फासिस्ट राज के समर्थक के आलावा कुछ नहीं ......
हाल ही में दस्तक पत्रिका की सम्पादक सीमा आजाद जो इलाहाबाद में काफी समय से अपने विचारों को संप्रेषित करती रही है तथा एक सामजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनकी पहचान होती रही है को नक्सली बताकर पुलिस द्वारा हथकड़ी पहनाकर पकड़ा गया जिनमे उनके पति को भी माओवादी बताया गया लेकिन क्या पुलिस के यह कहने से की अमुक व्यक्ति नक्सली है या माओवादी है हमे मान लेना चाहिए आखिर पुलिस खुद से न्याय करके मुठभेड़ जैसे घटनाओं में न जाने कितनो निर्दोष को मार कर नक्सल साबित कर देती है और हम ज़रा भे नहीं सोचते वह था क्या ? जो विचार प्रकाशित हो रहे हो जिनमे लोगो की प्रतिक्रियाए मिल रही हो व् देश की उन कमियों को जिनसे देश भर में विद्रोह का स्वर मुखरित हो रहा हो क्या उन्हें लोगो तक पहुचाना देश द्रोह है और व्ही विचार हमारे वोटो से कुर्सी हासिल करने वालो को सचेत कर रहे हो तो क्या वह देश विरोधी है ?और क्या यही देश द्रोह साबित करने का एक वाजिब पैमाना है की अमुक व्यक्ति ने इसे आम व्यक्तियों तक पंहुचा दिया , हमारे साथी विजय ने कल एक महतवपूर्ण चीज बतायी जो वास्तव में आज पत्रकारिता से गायब हो रही है हम मात्र पुलिस के कहने से किसी भी व्यक्ति को नक्सल माओवादी आतंकवादी कह देते है और अनजाने में ही हम सरकारी प्रवक्ता बन जाते हैं हम ज़रा भी ये जहमत नहीं उठाते की उसमे कथित या पुलिस के अनुसार लिखने या कहने का जहमत उठाये, फिलहाल हमे एक होना पड़ेगा और सक्रिय भी ताकि देश भर में घट रही पुलिस तानाशाही को रोका जा सके सीमा आजाद को हथकड़ी पहनाना वास्तव में अभियक्ति पर हथकड़ी है और आप सभी साथियो से अपील है की अपना विरोध दर्ज करे .......... JOURNALIST UNION FOR CIVIL SOCIETY VIVEK MISHRA
शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
जागो ग्राहक जागो .......
विवेक मिश्र Think Before Drinking Tea while traveling by Indian Railway (IRCTC)
These snaps were taken while traveling by Kokan railway (Janshatabadi Exp.)
Caterers use toilet water for making tea Your tea is made in a special zone near public toilet
These snaps were taken while traveling by Kokan railway (Janshatabadi Exp.)
Caterers use toilet water for making tea Your tea is made in a special zone near public toilet
शनिवार, 28 नवंबर 2009
विकिपीडिया सियासी बकवास का...आईने में लिब्रहान
विवेक मिश्रा
रात में समाचार देख कर सोया की संसद में गन्ने के उचित मूल्य के मुद्दे पर विपक्ष ने किसानो को सड़क पर उतारकर सरकार को मुश्किल में डाल दिया है और कल सरकार ज़रूर किसानो के लिए कुछ करेगी लेकिन कहते है कल किसने देखा है ,आम आदमी तो नही देख सकता क्यूंकि वह सियासत का मोहरा जो है खैर मै मुद्दे से भटक रहा हूँ,लेकिन लगता है सरकार को मुद्दे से भटकने का मुद्दा चाहिए रहता है कांग्रेस सरकार किसानो की मसीहा जो ठहरी सुबह हुई संसद का माहौल और मिज़ाज दोनों बदला बदला दिखा आज अडवानी ख़ुद ही एक समाचार पत्र लिए प्रवेश कर रहे थे यह वही समाचारपत्र था जो जसवंत सिंह के लिए हाल में अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का साधन बना था, समाचारों में हेडिंग बन रही थी बोतल से फिर जिन्ना का जिन्न निकला खैर जसवंत सिंह की अभिव्यक्ति चल निकली और हमेशा की तरह विवादित चीज़ हिट फोर्मुले पे हिट हुई विवादित शब्द से ध्यान आया संसद में उस दिन अडवानी जी के हाथो में जो समाचार पत्र था उसके पहले पेज पे ही विवादित ढांचा यानी बाबरी १९९२ के आरोपी लगभग ६८ जिंदा जिन्नों के बारे में छपा था हमारी विपक्ष ने संसद के शुरू होते ही किसान और गन्ना दोनों को ताख पे रखा और सरकार से लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट जो सत्रह सालो से बोतल में कैद थी को पेश करने की मांग कर दी ,उधर समाचार चैनेल से लेकर पूरी मीडिया ने बयार बहने की दिशा को भांपकर किसान और गन्ने को स्क्रीन से बाहर फेककर अडवानी एंड संस की जिन्न टीम को अपने स्क्रीन में कैद कर भूखे किसानो को खाने को परोस दिया मेरी नीद खुलने के बाद और रात में बेड पर जाते समय तक इन चीजो ने मुझे बैचैन कर दिया की अब गन्ना किसानो का ? समझ में आया की सुगर लाब्बिंग ने किसानो के नेता होने का दावा करने वालो को इतनी मीठी चाय पिला दी है की वे देश को आज़ाद कराने वाले नेताओं पर भी संसय करने लगे है साथ यह भी कह रहे है की इस मीठी चाय पर कौन न कुर्बान हो जाए ,मुझे सैफ अली खान की तरह इन किसान नेताओं का भविष्य भी कुर्बान होता दिख रहा है टाटा के चाय उत्पाद ने नया स्लोगन भी निकाला है चाय पिलाओ घूस नही लेकिन टाटा वाले भूल गए की यदि चाय मीठी हुई तो ?मैंने बहूत बकवास कर ली क्या करू आदत से मजबूर जो हूँ कुछ लोग यह भी कहते है आंकड़े बताता नही केवल मुंह खोला और जो आया भक से कह दिया ,लिख दिया
फिलहाल एक सर्व विदित तथ्य आपको बता दूँ की समाचार पत्र का नाम इंडियन एक्सप्रेस था अब इसने लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट स्वय खोजी या इससे खोज्वाई गयी खोज का विषय है यह हमारे किसान के सबसे वफादार नेता और हम सभी भारतीय किसानो के बीच पढ़े लिखे सरदार माफ़ कीजियेगा सरकार मनमोहन सिंह का कहना है जांच लिब्रहान की तरह १७ का दूना ३४ साल में न आए बस यही दुआ है मेरी और सियासत के जिन्नों से अनुरोध है की किसानो के बचे गन्ने तो कम से कम न चूसो घर जाओ और किसानो के खून को चूस कर जो फ्रूटमिक्सेर मंगवाया है मंहगे फलो को उसमे डाल कर रस निकालो और गालो को लाल करो ......जारी रहेगा
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
सोर्स नही तो कोर्स क्यूँ ?
विवेक मिश्रा
साथियों आज पत्रकारिता में सोर्स, जुगाड़ और माखन बाजी इतने प्रचलित शब्द हो गए है की बिना इन्हे जाने लगता है आप पूर्ण पत्रकार नही हो सकते कुछ आदि इमानदारो को पत्रकारिता करने की जगह मिलती भी है तो उन्हें वो जगह दी जाती है जन्हा वे एक टाइपिंग बाबू से ज़्यादा कुछ नही ,पत्रकारिता में नई पौध को कुछ आला मीडिया कर्मियों के द्बारा यह कहा जाता है सोर्स नही तो कोर्से क्यूँ किया ,अब यह परिभाषा नई पौध को जेहन में डाल कर मीडिया फिल्ड में आना चाहिए ,देश के चार स्तंभों में हर स्तम्भ में अयोग्यो की सरकार है ,यह बात किसी से छुपी नही है बावजूद इसके की कुछ इमानदार और सच्चे लोग है जो देश को बचाए है मुझे कार्लायन के ये कथन याद आते है की विश्व में एक बुद्धिमान के साथ नौ मूर्ख लोग हमेशा रहते है ,फील्ड में आओगे तो पता चलेगा यह जुमला मीडिया के लिए आज टैग लाइन बन गयी है जो नई पौध के मानसिक शोषण से ज्यादा कुछ भी नही है ,मै मानता हूँ की मीडिया में पूरे विश्व में यही चल रहा है लेकिन चयन प्रक्रिया जो मुख्य आधार होता है किसी भी संस्थान को सृजित करके उचाइंयो पर ले जाने का वही गायब होती आज मीडिया के फील्ड में साफ़ दिखायी देती है ,और जब तक मीडिया अपनी चयन प्रक्रिया में सुधार कर योग्यता को तरजीह नही देगी तब तक मीडिया की छवि और कृति सुधर नही सकती और ख़बर एक मिशन कभी नही बन सकती ,और कुछ विश्व भर में बनी ये फिल्मे जो मीडिया कही मीडिया के बहादुरी की दास्ताँ बताती है तो कही मीडिया के अन्दर का सच आप चाहे तो इन्हे पढ़ कर देखे भी.............................
साथियों आज पत्रकारिता में सोर्स, जुगाड़ और माखन बाजी इतने प्रचलित शब्द हो गए है की बिना इन्हे जाने लगता है आप पूर्ण पत्रकार नही हो सकते कुछ आदि इमानदारो को पत्रकारिता करने की जगह मिलती भी है तो उन्हें वो जगह दी जाती है जन्हा वे एक टाइपिंग बाबू से ज़्यादा कुछ नही ,पत्रकारिता में नई पौध को कुछ आला मीडिया कर्मियों के द्बारा यह कहा जाता है सोर्स नही तो कोर्से क्यूँ किया ,अब यह परिभाषा नई पौध को जेहन में डाल कर मीडिया फिल्ड में आना चाहिए ,देश के चार स्तंभों में हर स्तम्भ में अयोग्यो की सरकार है ,यह बात किसी से छुपी नही है बावजूद इसके की कुछ इमानदार और सच्चे लोग है जो देश को बचाए है मुझे कार्लायन के ये कथन याद आते है की विश्व में एक बुद्धिमान के साथ नौ मूर्ख लोग हमेशा रहते है ,फील्ड में आओगे तो पता चलेगा यह जुमला मीडिया के लिए आज टैग लाइन बन गयी है जो नई पौध के मानसिक शोषण से ज्यादा कुछ भी नही है ,मै मानता हूँ की मीडिया में पूरे विश्व में यही चल रहा है लेकिन चयन प्रक्रिया जो मुख्य आधार होता है किसी भी संस्थान को सृजित करके उचाइंयो पर ले जाने का वही गायब होती आज मीडिया के फील्ड में साफ़ दिखायी देती है ,और जब तक मीडिया अपनी चयन प्रक्रिया में सुधार कर योग्यता को तरजीह नही देगी तब तक मीडिया की छवि और कृति सुधर नही सकती और ख़बर एक मिशन कभी नही बन सकती ,और कुछ विश्व भर में बनी ये फिल्मे जो मीडिया कही मीडिया के बहादुरी की दास्ताँ बताती है तो कही मीडिया के अन्दर का सच आप चाहे तो इन्हे पढ़ कर देखे भी.............................
FILM- ALL THE PRESIDENTS MEN, DIRECTED BY-ALLEN PAKOOLA,
यह फ़िल्म वाटर गेट के स्कैंडल को दुनिया के सामने लाने में वाशिगटन पोस्ट के पत्रकारों कार्ल बर्नस्टाइन ,बोब वुडवर्ड की यात्रा की कहानी है डस्टिन हाफ मैन और रॉबर्ट रेडफोर्ड के अभिनय ने इस पूरी फ़िल्म को गहरे आयाम दिए है ,पत्रकारिता के गहरे गंभीर काम काम को सामने लाती यह एक बेहतरीन फ़िल्म है ।
FILM-A CRY IN THE DARK ,DIRECTED BY-FRED SHIVASKI,
मीडिया द्बारा ख़ुद जज बनने को कहती यह फ़िल्म मेरिल स्ट्रीप और सैम नील के अदभुत अभिनय को दिखाती है ,यंहा एक माँ के अपने बच्चे के मारे जाने का अपराधी साबित करता मीडिया है तो दूसरी तरफ़ एक माँ की पीड़ा और उसका मजबूत इरादा है एक सत्य घटना पर आधारित यह कहानी जीवन के बहूत से पहलूँ से साक्षात्कार कराती है
FILM-SHATTERD GLAAS,DIRECTED BY-BILE RE
रोलिंग स्टोन के पत्रकार स्टेवन ग्लास की जिन्दगी के उतार चढावो को दिखाती यह कथा ,सत्य घटना है रिपोर्टर को जब यह पता चलता है की उसका काम सच कम और झूठ पर ज्यादा आधारित है तो उसे समय की एक गहरी टूटन को दिखाती यह फ़िल्म पत्रकारिता के सभी पहलूँ को खूबसूरती से दिखाती है
FILM-THE FRONT PAGE,DIRECTED BY-BILEE BAILDER
सम्पादक और रिपोर्टर के रिश्ते और अखबार की सुर्खियों की तलाश पर तंजिया नज़र डालती यह फ़िल्म वाल्टर और जैक लेमन की जोड़ी ने खूब अच्छे से अभिनय किया है रिपोर्टर, सम्पादक के द्वारा दिए लालच में कैसे फसता है दिलचस्प तरीके से फिल्माई गयी है
FILM-NEW DELHI TIMES ,DIRECTED BY -ROMESH SHARMA
पत्रकारिता और राजनीति के गहरे रिश्तो की पड़ताल करती कहानी ,वर्तमान की तस्वीर साफ़ करती है कहानी का मूल ताकत की तलाश में इस्तेमाल होना बखूबी दिखाया गया है भारतीय कलाकार -शशिकपूर शर्मीला ,मनोहर सिंह ,कुलभूषण खरबंदा ने अपना शानदार अभिनय दिया है
FILM-THE KILLING FIELDS ,DIRECTED BY-RONALD JOF
कम्बोडिया में आतताई शासन के दौरान तीन पत्रकारों जिनमे एक कम्बोडियन एक अमेरिकन और एक ब्रिटिश है अनुभवों पर आधारित है आतंक और हत्याओं के बीच जीवन को सामने लाती है यह कृति
FILM-CITIZEN KEN ,DIRECTED BY -AARSAN VELS
विश्व सिनेमा में आर्सन वेल्स के द्बारा लिखित और अभिनीत भी है,व्यक्तित्व को परत पर परत जिस तरह से खोलती है वह एक चमत्कार की तरह दिखाई देता है ,यह फ़िल्म साईट एंड साउन्द पत्रिका के द्बारा विश्व की श्रेष्ठ फ़िल्म ठहराई गयी है
FILM -THE INSIDER ,DIRECTED BY-MICHEL MAN
अमेरिका के प्रसिद्ध प्रोग्राम 60 मिनटस की एक कहानी जिसमे तम्बाकू उद्योग का परदाफाश हुआ था को आधार बनाकर यह फ़िल्म बनायी गयी है
FILM-REDS,DIRECTED BY-VAAREN BITE पत्रकार जोन रीड की रुसी क्रान्ति पर लिखी पुस्तक (TEN DAYS THAT SHOOK THE WORD )पर आधारित है वामपंथी सोच और रूस के क्रांति की कथा बड़े सजीव तरीके से सामने लाता है
FILM -THE ABSENS OF MAILIS ,DIRECTED BY-SIDNEY POLAK
पाल न्यूमन के द्बारा अभिनीत यह फ़िल्म एक माफिया पुत्र को हत्या के इल्जाम में फ़साने की कहानी है अखबार की रिपोर्टर द्बारा अपनी कहानी को सच बनाने की कोशिशों में नैतिकता को धुंधलाती सीमओं का आख्यान है यह फ़िल्म
मंगलवार, 28 जुलाई 2009
भोपाल और अंतर्राष्ट्रीय जनजातीय फ़िल्म समारोह
विवेक मिश्रा
भोपाल में कला और संस्कृति का चोली दामन का साथ रहा है ,कुछ इसी तरह का मुखरित रूप दिखा अबकी बार आयोजित अन्तराष्ट्रीय जनजातीय फ़िल्म समारोह २००९ में ,विश्व भर में आदिम जनजातियों पर आधारित छोटे समय में बड़े यथार्थ को कह देने का माद्द्दा रखने वाली लगभग ७० छोटी फिल्मो के प्रदर्शन द्वारा रविन्द्र ,शहीद और भारत भवन में दिखायी गई ये फिल्मे वास्तव में विश्व भर में फैले वनवासी समूहों की बात कहती नज़र आई जिन्हें हमेशा से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है १९ जून से २१ जून के बीच प्रर्दशित कुछ देखी फिल्मो के अनुभव आप से बयान करना चाहूंगा जिन्हें केवल देखा और सुना नही जाना चाहिए बल्कि चिंतन से निराकरण की और बढना होगा .......................... यह दृश्य जो आप देख रहे है वह ४७ मिनट की फ़िल्म "सहारा क्रोनिकल" की है जो मूल रूप से फ्रेंच में है फ़िल्म के टाइटल के अनरूप स्विट्जरलैंड की डायरेक्टर उर्सुला बिएमन्न ने छोटे कैनवास पर बड़े यथार्थ के रूप में भारी संख्या में सब सहारा से यूरोप की ओर पलायन को दिखाया है इस सॉर्ट फ़िल्म में गतिशीलता की राजनीति दृश्यता तथा संतोष जो की वर्तमान वैश्विक भूगोलिक राजनीति के मन में है ,एक यायावारी समुदाय की हैसियत से दुआरेग जनजाति का ,सहारा के बाहर पलायन करने वालो की मुख्य भूमिका है फ़िल्म में पलायन के रीति और कारणों का अध्यन जबरदस्त है।बिएमन्न ने मोरोक्को ,मौरितिअना तथा निगेर में स्थित ट्रांस सहारा नेटवर्क के प्रमुख प्रवेशद्वार तथा केन्द्र की यात्रा करके इकठा की गई है।
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फ़िल्म-आल द वोर्ड्स अ स्टेज निर्माता -निर्मल चंदरभाषा-इंग्लिश सारांश - यह फ़िल्म गुजरात के सूफीयाना पहलू पर आधारित है ऐसा माना जाता है की कुछ लोग पानी के एक वजनी जहाज से ७०० साल पहले निकले थे लेकिन जब वे लौटे तो हवाई जहाज से रास्ते के सफर के दौरान वे अपने मूल निवास स्थान की जानकारी और भाषा भूल गए लेकिन उन्हें अपना संगीत और नृत्य जैसे का वैसा याद रहा जो उनके इतिहास को बयां करता है
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फ़िल्म टाइटल -old man peter
भाषा -रशिया
निर्माता -इवान गोलोनेव
सिनोप्सिस-यह फ़िल्म हमको कजायम नदी के किनारे रहने वाले आख़िरी जीवित बूढे आदमी की पीटर सेनेज़पोव की दुनिया में ले जाती है जो साइबेरिया टैग के सुदूर गहरे इलाके में अकेले रहता है ,खान्त्ति लोगो का क्षेत्र रूस में नैचुरल तेल निकालने का मूलभूत स्रोत है रूस में नैचुरल तेल इसी क्षेत्र से निकाला जाता है .बड़ी -बड़ी तेल कम्पनियों ने साइबेरिया के उत्तरी इलाके में वृहत तरीके से ज़मीनों के खरीद फरोख्त की है तथा वंहा के रहवासी जिनकी विरासत से ज़मीने है उनको मजबूर कर दिया है की वे अपनी ज़मीने छोड़ दे शायद बेघर करके रोज़गार देने का ये तरीका पूंजीपतियों को विरासत में मिला है
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फ़िल्म टाइटल -geles
english title -flower
language-lithunian
director-giedrius zubavicius
synopsis- इस फ़िल्म के नायक बच्चे है जो विलिनिअस शहर के विभिन्न हिस्सों में फूल बेचते है ,इसमे से एक बच्चा कब्रिस्तान के पास फूल बेचता है और जो बाद में कब्रों पर चढाये गए फूलो को फ़िर से बेच देता है ,कारण लड़के की चालाकी नही बल्कि मजबूरी है जो गरीबी की मार झेल रहा है और अपने माँ बाप को आर्थिक मदद देता है इस बच्चे के कई और दोस्त है जो अन्य जगहों पर फूल बेचते है फ़िल्म में मोड़ तब आता है जब कब्रिस्तान पर फूल बेचने वाले वाले बच्चे के माँ बाप के आग में जल कर मृत्यू हो जाती है और बच्चो के जीवन में एक बदलाव होता है जो फ़िल्म की सार्थकता को और ज्यादा सिद्ध करती है
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film- everything has its time
language-akha ,thai,english
director-joel gerhson
synopsis-यह फ़िल्म आज की दुनिया में अखा नामक एक पहाडी जनजाति पर केंद्रित है जिन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ,२१ शातब्दी के विश्व भर में असमान विकास ने इनको भी अस्तित्व की लडाई लड़ने पर मजबूर कर दिया है
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film title-flores the ruanda
english title -flowers oe rwanda
language-english,french
director -david munoz
synopsis- यह फ़िल्म रवांडा सामूहिक हत्या कांड जिसने लगभग आठ लाख लोगो को बलि ली १४ वर्ष बाद आज उस देश को तमाम यातनाओं के बाद वर्तमान परिवेश पर नज़र डालती हुई सवाल खडा करती है क्या पीड़ित और हत्यारे एक साथ रह सकते है ,यंहा की शिक्क्षा और दुबारा ऐसी घटना नही हो सकती तमाम सवाल बटोरे वयक्तिक ज़िम्मेदारी पर भी सवाल खड़ा करती है ,और उत्तरदायित्व का भी बोध कराती है
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फ़िल्म-the lost water
language-guzrati
director-dakxin bajarange
synopsis-भारत में कुल उत्पादित नमक का ७३% भाग गुजरात राज्य से प्राप्त होता है जिसमे से लगभग ६०% हिस्सा रन ऑफ़ कच्छ (ल .र. क.}से मिलता है यहाँ के मजदूर अगरियो के नाम से जाने जाते है ,यह मुख्या रूप से कोली और चूवालिया जनजाति के है ,एक मजदूर के रूप में न केवल ये सिर्फ़ पारिश्रामिक में भेद भावः के शिकार है बल्की अपने काम की घातक प्रकृती के कारण ये गभीर शारीरिक और मानसिक व्याधियों को झेलते है सिर्फ़ अकेले खरागादों गाँव में ४३७ विधवा रहती है अत्यधिक गर्म इलाके में ये तमाम त्वचा रोग और अंधत्व का शिकार हो रहे है इनकी सुध लेने को कोई नही ........
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language-english,french
director-tsitsi dangarembga
synopsis -सूखे का आक्रमण हो चुका है ,पिता अपनी पत्नी को रात्री के खाने से बाहर भगा देता है गुस्से में जब माँ अपने पति को चुनौती देती है पिता एक घ्रिदित उद्देश्य से गड्ढा खोदता है लेकिन उसे इस बात का डर भी है की उसकी पत्नी भी उसी ताकत से प्रहार कर सकती है ,अतः वह गधा आधा छोड़ देता है ,यह फ़िल्म जिम्बाब्वे में बनी एक स्त्री की व्यथा कहती मानव संवेदना को छु जाती है जो एक मोशन पिक्चर है
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ऐसी हजारो फिल्मे विश्व भर में बन रही है जो मुद्दों से भरी है ,सवाल यह है के क्या ये हम और आपमें बदलाव कर पायेगी या फिर यह समारोह का हिस्सा ही बन कर रह जायेगी क्या हम केवल सोची समझी बनायी गयी चाल के तहत सिर्फ़ बाज़ार का हिस्सा बने रहेंगे जहा न कोई आवाज़ होती है न कोई चीख निकलने दी जाती है उनके लिए केवल खरीद फरोख्त ही मानवता है, अधिकार का हनन ही क़ानून है ,और अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर कर देना ही सिद्धांत .....फ़ैसला आपके हाथ ....जारी रहेगा
भोपाल में कला और संस्कृति का चोली दामन का साथ रहा है ,कुछ इसी तरह का मुखरित रूप दिखा अबकी बार आयोजित अन्तराष्ट्रीय जनजातीय फ़िल्म समारोह २००९ में ,विश्व भर में आदिम जनजातियों पर आधारित छोटे समय में बड़े यथार्थ को कह देने का माद्द्दा रखने वाली लगभग ७० छोटी फिल्मो के प्रदर्शन द्वारा रविन्द्र ,शहीद और भारत भवन में दिखायी गई ये फिल्मे वास्तव में विश्व भर में फैले वनवासी समूहों की बात कहती नज़र आई जिन्हें हमेशा से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है १९ जून से २१ जून के बीच प्रर्दशित कुछ देखी फिल्मो के अनुभव आप से बयान करना चाहूंगा जिन्हें केवल देखा और सुना नही जाना चाहिए बल्कि चिंतन से निराकरण की और बढना होगा .......................... यह दृश्य जो आप देख रहे है वह ४७ मिनट की फ़िल्म "सहारा क्रोनिकल" की है जो मूल रूप से फ्रेंच में है फ़िल्म के टाइटल के अनरूप स्विट्जरलैंड की डायरेक्टर उर्सुला बिएमन्न ने छोटे कैनवास पर बड़े यथार्थ के रूप में भारी संख्या में सब सहारा से यूरोप की ओर पलायन को दिखाया है इस सॉर्ट फ़िल्म में गतिशीलता की राजनीति दृश्यता तथा संतोष जो की वर्तमान वैश्विक भूगोलिक राजनीति के मन में है ,एक यायावारी समुदाय की हैसियत से दुआरेग जनजाति का ,सहारा के बाहर पलायन करने वालो की मुख्य भूमिका है फ़िल्म में पलायन के रीति और कारणों का अध्यन जबरदस्त है।बिएमन्न ने मोरोक्को ,मौरितिअना तथा निगेर में स्थित ट्रांस सहारा नेटवर्क के प्रमुख प्रवेशद्वार तथा केन्द्र की यात्रा करके इकठा की गई है।
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फ़िल्म-आल द वोर्ड्स अ स्टेज निर्माता -निर्मल चंदरभाषा-इंग्लिश सारांश - यह फ़िल्म गुजरात के सूफीयाना पहलू पर आधारित है ऐसा माना जाता है की कुछ लोग पानी के एक वजनी जहाज से ७०० साल पहले निकले थे लेकिन जब वे लौटे तो हवाई जहाज से रास्ते के सफर के दौरान वे अपने मूल निवास स्थान की जानकारी और भाषा भूल गए लेकिन उन्हें अपना संगीत और नृत्य जैसे का वैसा याद रहा जो उनके इतिहास को बयां करता है
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फ़िल्म टाइटल -old man peter
भाषा -रशिया
निर्माता -इवान गोलोनेव
सिनोप्सिस-यह फ़िल्म हमको कजायम नदी के किनारे रहने वाले आख़िरी जीवित बूढे आदमी की पीटर सेनेज़पोव की दुनिया में ले जाती है जो साइबेरिया टैग के सुदूर गहरे इलाके में अकेले रहता है ,खान्त्ति लोगो का क्षेत्र रूस में नैचुरल तेल निकालने का मूलभूत स्रोत है रूस में नैचुरल तेल इसी क्षेत्र से निकाला जाता है .बड़ी -बड़ी तेल कम्पनियों ने साइबेरिया के उत्तरी इलाके में वृहत तरीके से ज़मीनों के खरीद फरोख्त की है तथा वंहा के रहवासी जिनकी विरासत से ज़मीने है उनको मजबूर कर दिया है की वे अपनी ज़मीने छोड़ दे शायद बेघर करके रोज़गार देने का ये तरीका पूंजीपतियों को विरासत में मिला है
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फ़िल्म टाइटल -geles
english title -flower
language-lithunian
director-giedrius zubavicius
synopsis- इस फ़िल्म के नायक बच्चे है जो विलिनिअस शहर के विभिन्न हिस्सों में फूल बेचते है ,इसमे से एक बच्चा कब्रिस्तान के पास फूल बेचता है और जो बाद में कब्रों पर चढाये गए फूलो को फ़िर से बेच देता है ,कारण लड़के की चालाकी नही बल्कि मजबूरी है जो गरीबी की मार झेल रहा है और अपने माँ बाप को आर्थिक मदद देता है इस बच्चे के कई और दोस्त है जो अन्य जगहों पर फूल बेचते है फ़िल्म में मोड़ तब आता है जब कब्रिस्तान पर फूल बेचने वाले वाले बच्चे के माँ बाप के आग में जल कर मृत्यू हो जाती है और बच्चो के जीवन में एक बदलाव होता है जो फ़िल्म की सार्थकता को और ज्यादा सिद्ध करती है
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film- everything has its time
language-akha ,thai,english
director-joel gerhson
synopsis-यह फ़िल्म आज की दुनिया में अखा नामक एक पहाडी जनजाति पर केंद्रित है जिन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ,२१ शातब्दी के विश्व भर में असमान विकास ने इनको भी अस्तित्व की लडाई लड़ने पर मजबूर कर दिया है
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film title-flores the ruanda
english title -flowers oe rwanda
language-english,french
director -david munoz
synopsis- यह फ़िल्म रवांडा सामूहिक हत्या कांड जिसने लगभग आठ लाख लोगो को बलि ली १४ वर्ष बाद आज उस देश को तमाम यातनाओं के बाद वर्तमान परिवेश पर नज़र डालती हुई सवाल खडा करती है क्या पीड़ित और हत्यारे एक साथ रह सकते है ,यंहा की शिक्क्षा और दुबारा ऐसी घटना नही हो सकती तमाम सवाल बटोरे वयक्तिक ज़िम्मेदारी पर भी सवाल खड़ा करती है ,और उत्तरदायित्व का भी बोध कराती है
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फ़िल्म-the lost water
language-guzrati
director-dakxin bajarange
synopsis-भारत में कुल उत्पादित नमक का ७३% भाग गुजरात राज्य से प्राप्त होता है जिसमे से लगभग ६०% हिस्सा रन ऑफ़ कच्छ (ल .र. क.}से मिलता है यहाँ के मजदूर अगरियो के नाम से जाने जाते है ,यह मुख्या रूप से कोली और चूवालिया जनजाति के है ,एक मजदूर के रूप में न केवल ये सिर्फ़ पारिश्रामिक में भेद भावः के शिकार है बल्की अपने काम की घातक प्रकृती के कारण ये गभीर शारीरिक और मानसिक व्याधियों को झेलते है सिर्फ़ अकेले खरागादों गाँव में ४३७ विधवा रहती है अत्यधिक गर्म इलाके में ये तमाम त्वचा रोग और अंधत्व का शिकार हो रहे है इनकी सुध लेने को कोई नही ........
--------------------------------------------------------------------------------------------------फ़िल्म-kare kare zvako --mothers day
language-english,french
director-tsitsi dangarembga
synopsis -सूखे का आक्रमण हो चुका है ,पिता अपनी पत्नी को रात्री के खाने से बाहर भगा देता है गुस्से में जब माँ अपने पति को चुनौती देती है पिता एक घ्रिदित उद्देश्य से गड्ढा खोदता है लेकिन उसे इस बात का डर भी है की उसकी पत्नी भी उसी ताकत से प्रहार कर सकती है ,अतः वह गधा आधा छोड़ देता है ,यह फ़िल्म जिम्बाब्वे में बनी एक स्त्री की व्यथा कहती मानव संवेदना को छु जाती है जो एक मोशन पिक्चर है
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ऐसी हजारो फिल्मे विश्व भर में बन रही है जो मुद्दों से भरी है ,सवाल यह है के क्या ये हम और आपमें बदलाव कर पायेगी या फिर यह समारोह का हिस्सा ही बन कर रह जायेगी क्या हम केवल सोची समझी बनायी गयी चाल के तहत सिर्फ़ बाज़ार का हिस्सा बने रहेंगे जहा न कोई आवाज़ होती है न कोई चीख निकलने दी जाती है उनके लिए केवल खरीद फरोख्त ही मानवता है, अधिकार का हनन ही क़ानून है ,और अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर कर देना ही सिद्धांत .....फ़ैसला आपके हाथ ....जारी रहेगा
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